लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
उत्तराधिकार-1
इस देश के उत्तराधिकार कानून, धर्म के आधार पर बनाए गए हैं। मुसलमानों का उत्तराधिकार कुछ यूँ है-मृत औरत को अगर कोई संतान या संतान की संतान न हो, तो औरत की जायदाद का 1/2 हिस्सा पति को मिल जाता है! मृत औरत की संतान मौजूद हो, भले वह पति की जायज़ संतान हो या न हो। पति को 1/4 हिस्सा मिलता है। विल्कुल इसी तरह, मृत पति की संतान या संतान की संतान मौजूद हो, तो पति की संपत्ति में बीवी को 1/2 हिस्सा मिलना चाहिए, लेकिन बीवी को वह हिस्सा कभी भी नहीं मिलता। उसे 1/4 हिस्सा मिलता है और पति की संतान मौजूद हो, तो बीवी को 1/4 हिस्से के बजाय 1/8 हिस्सा मिलता है।
अगर किसी शख्स की मौत हो जाती है, और उसके माँ-बाप जिंदा हैं, तो संपत्ति का बँटवारा कुछ यूँ होता है-माँ को 1/3 हिस्सा मिलता है; पिता को 2/3 हिस्सा मिलता है। दो या दो से अधिक भाई-बहन मौजूद हों, तो माँ को 1/6 हिस्सा मिलता है। अगर भाई-बहन न हों, तो 1 हिस्सा प्राप्त होता है। पिता को मिलता है 5/6 हिस्सा। भाई-बहनों को कुछ नहीं मिलता। क्योंकि उनके माँ-बाप मौजूद होते हैं।
उत्तराधिकार-लाभ के मामले में बेटी का हिस्सा 1/2 होता है। दो या ज्यादा बेटियाँ हों, तो उन सबको मिला-जुलाकर 2/3 हिस्सा मिलता है। लेकिन अगर बेटा भी मौजूद हो, तो बेटी को एग्नेटिक वारिस के तौर पर यानी अवशिष्ट अंश के तौर पर, हिस्सा मिलता है। एक बेटा और बेटी का अनुपात 2 : 1 यानी हर बेटे को, बेटी से दुगना हिस्सा मिलता है।
यह है सुन्नी मुसलमानों के उत्तराधिकार कानून की नितांत छिटपुट मिसाल! उत्तराधिकार में अगर इतनी विषमता हो, तो हम यह ज़रूर सोच सकते हैं कि माता और पिता बराबर नहीं होते; बेटी और बेटे को भी बराबरी का हक नहीं है, मियाँ-बीवी भी बराबरी के हकदार नहीं हैं। इनमें फर्क है। यह फर्क आखिर क्यों है? क्यों माँ. बेटी और बीवी को पिता-पुत्र-पति के बराबर सम्मान नहीं मिलता? इस जीती-जागती विषमता को सामने रखकर, जो मर्द या औरत अगर यह सोचे कि वे लोग तृप्त हैं, सुखी और संतुष्ट हैं, तो वे लोग अपनी कब्र, अपने आप खोद रहे हैं और चतुर दर्शक तालियाँ बजा-बजाकर उनका अभिनंदन कर रहे हैं। चूँकि मैं चतुर नहीं हूँ, इसलिए जायदाद-बँटवारे का यह नमूना देखकर, बाकी सभी मर्दो की तरह सुख-चैन की साँस नहीं ले पाती। मैं समाज की विकृत, वंचित, घर्षित, निरीह, निरुपाय औरत हूँ। उत्तराधिकार का यह कानून, में मानने से इनकार करती हूँ। मैं संपत्ति-बाँटने में समान और स्वस्थ कानून चाहती हूँ। आज और अभी से चाहती हूँ। देश की पहली प्रधानमंत्री के बदन पर इस चरम विषमता की क्या ज़रा भी आँच नहीं लगती? मुझे तो लगती है, उन्हें क्यों नहीं लगती? अगर वे इंसान हैं, औरत हैं, विवेकवान और बद्धिमान हैं; अगर वे सच्ची, ईमानदार और निष्ठावान हैं. तो उनके भी दिल पर, इस असमान हिस्सेदारी का चाबुक ज़रूर पड़ता है।
लोगों का कहना है कि बाप की संपत्ति अगर बेटियाँ लेती हैं, तो उन्हें 'सहता नहीं'। कमाल है! बाप की संपत्ति बेटियों को नहीं सहती, सिर्फ बेटों को सहती है! यानी रास आने का काम मर्द का ‘गुप्तांग' करता है। जिनके पास 'पुरुषांग' नहीं है, उनके बदन पर काँटे उगे होते हैं, वे टें बोल जाती हैं। यही सब समझा-बुझाकर, धूर्त लोग बेटियों को विमुख करने की कोशिश करते हैं और अंत में उन्हें वंचित करके ही दम लेते हैं।
जायदाद का फायदा, मातृकुल से ज़्यादा पितृकुल को होता है। मामा और खाला से कहीं ज़्यादा काका और फूफी के हिस्से में आता है। काका और फूफी को मिलता है ? भाग; मामा और खाला को मिलता है। भाग! यानी मातृकुल ही ठगा जाता है! माँ-बेटी बीवी ही ठगी जाती हैं! शरिया कानून ने ही ठगने की यह विधि तैयार की है। शरिया विधि के पंजों ने उत्तराधिकार का तन-बदन दबोच रखा है!
औरत कभी भी किसी भी संपत्ति में 'हिस्सेदार' नहीं होती। वह 'अवशिष्टांशभोगी' है! अवशिष्टांशभोगी, दूसरे दर्जे की वैध उत्तराधिकारी होती है। औरत जैसे दूसरे दर्जे की नागरिक है, उसी तरह दूसरे दर्जे की उत्तराधिकारिणी भी है! उसे सिर्फ 'अवशिष्ट' यानी जो बच रहता है, वही मिलता है! जैसे घर के मर्दो के खाने-पीने के बाद, जो बच रहता है औरत बस, वही खाती है! उसी तरह संपत्ति में भी मर्द-हिस्सेदारों को हिस्सा मिलने के बाद, जो तलछट बच रहती है, वह औरत को मिलता है। बीवी, बेटी, माँ, बहन सौतेली बहन-सभी को संपत्ति का अवशिष्टांश ही नसीब होता है! हिस्सेदार कोई भी नहीं होती। कोई भी पहले दर्जे की उत्तराधिकारी नहीं होती। उस पर से यह अवशिष्टांश भोग करने में भी समाज बिरादरी रोड़े अटकाती है। लोग-बाग आवाजें कसते हैं- 'वेटियाँ अगर संपत्ति लेती हैं, तो उन्हें सहता नहीं है।'
अस्तु, जायदाद उन्हें भी रास आए, इसके लिए कदम उठाना होगा। 'सहता नहीं-यह कहकर महज मर्दो में ही हिस्सा-बाँट करना. नहीं चलेगा। पिता के बराबर ही माता को, पुत्र के बराबर ही पुत्री को, पति के बराबर ही पत्नी को-अगर समान अधिकार देने की व्यवस्था की जाए, तो सब-कुछ सहने लगेगा। अगर ऐसी व्यवस्था नहीं की गई, तो जो सरकार, हमारे तमाम कानूनों की सिरमौर है, हम ज़्यादा दिन उसे नहीं सहेंगे।
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